सत्र: बिना खर्च विरोध प्रदर्शन का बड़ा मंच -सुरेश शर्मा, भोपाल
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चाहे लोकसभा का सत्र हो या विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं का, इसके मायने ही बदल गए हैं। पहले के दौर की बात करें तो विधायक सवाल पूछने की तैयारी करते थे। अपने सभी सूत्र खंगालते थे। सवाल पूछवाने के लिए लोग भी विधायक के पास पहुंचते थे। उत्साह का वातावरण होता था। दूसरी तरफ सरकार सवाल का समय आने पर सतर्क हो जाती थी। अधिकारियों में एक विशेष प्रकार का डर दिखता था। कुछ खास किस्म के कर्मचारियों को जवाब तैयार करने के लिए लगाया जाता था। वे फाइलों को इसलिए खंगालते थे क्योंकि यदि विधायक ने कुछ अतिरिक्त पूछ लिया तो? मंत्री को हर स्थिति के लिए तैयार किया जाता था। मंत्री की भी ब्रीफिंग की जाती थी। मतलब यह है कि विधानसभा सत्र आने से पहले ही प्रशासन दुरुस्त हो जाता था। एक होता है काम रोको प्रस्ताव। अपने ही दल के विधायकों में इस बात की होड़ लगती थी कि इस विषय की सूचना सबसे पहले कौन दे? गेट के सामने कतारें लगती थीं। जाने-माने विधायक सुबह-सुबह गेट के पास दिख जाते थे। मीडिया भी यह देखता था कि स्थगन में किसका नाम पहले पढ़ा गया? लेकिन आजकल यह सब गायब हो गया। चलो तकनीक का युग है, लेकिन इसमें भी मंत्रालय की हलचल भी क्यों गायब हो गई?
अब तो अधिकारी लंबी तानकर सो रहे हैं। विधायक सवाल ही अब क्षेत्रीय अधिकारियों से पूछकर लगाते हैं। कई बार तो सवाल पूछकर या ध्यानाकर्षण लगाकर चर्चा के समय गायब हो जाते हैं। बड़ा बदलाव आ गया। अब सरकार केवल दो ही विषयों पर सोचती है कि सरकारी कामकाज पर सदन की मुहर लगवा ली जाए। विधानसभा अध्यक्ष उसमें सरकार की मदद करते हैं। वे हंगामे के समय महत्वपूर्ण प्रस्तावों को ‘हां की जीत हुई, हां की जीत हुई’ कहकर पारित कर देते हैं। न कोई बोलना चाहता है, न कोई इस बात पर रुचि रखता है कि कोई बोले। सत्र समाप्त करने की मानसिकता शुरू होने वाले दिन से ही प्रभावी हो जाती है। आखिर सरकार का यह बेरुखापन क्यों है? यहां विपक्ष की भूमिका भी उतनी ही संदिग्ध है। विपक्ष की मंशा सरकार को घेरने की बिल्कुल ही नहीं है। उसकी सोच हो गई है कि जितने दिन भी सत्र चले, अपने एजेंडे को पूरा किया जाए। क्योंकि बिना किसी भी खर्च के विरोध प्रदर्शन करने का सबसे सुलभ मंच विधानसभा का सत्र होता है। इसमें जिसे सुनाना है वह सरकार भी है। जिससे लिखवाना है वह मीडिया भी है। भीड़ जुटाने की मेहनत भी नहीं है।
इन सभी बातों से लोकतंत्र की मर्यादा खत्म हो रही है। विपक्ष हंगामा करता है। मीडिया विरोध तलाशता है और अधिकारी चैन की तान कर सोता है। क्योंकि उसका ऑडिट ही नहीं हो रहा है। सरकार अपना काम कराकर सत्र समाप्त करने की फिराक में रहती है। इन सभी परिस्थितियों के बीच मध्यप्रदेश विधानसभा का सत्र आ ही रहा है। विपक्ष इसी प्रकार की योजना बना रहा है। सरकार को सदन में घेरने का मतलब होता था सवालों से निरुत्तर करना? अब अपने राजनीतिक एजेंडे पर हंगामा करना सरकार को घेरना हो गया? चलो, एक खेला देखने के लिए तैयार हो जाते हैं।